रविवार, 2 जनवरी 2011

झुमका-सुरमा ही नहीं, जनाब अब फूल नगरी कहिए

झुमका-सुरमा ही नहीं, जनाब अब फूल नगरी कहिए
नामचीन हस्तियों की पार्टियों की शोभा बढ़ा रहे बरेली के विदेशी फूल
- बड़े शहरों को रोजाना करीब दस ट्रक फूलों की सप्लाई,
करोड़ का कारोबार अक्टूबर से मार्च छह महीने चलता है धंधा
प्रमोद यादव
बरेली : झुमके-सुरमे की नगरी अब अपनी एक और पहचान बनाने को बेताब है। इस बार फूल उत्पादकों ने अपने हुनर का कमाल दिखाया है। बरेली की धरती पर विदेशी फूलों की खेती ही नहीं की, बल्कि उसकी जबरदस्त मार्केटिंग भी की है। रोजाना करीब दस ट्रक फूल महानगरों को जा रहा है, जहां यह फूल नामचीन हस्तियों की पार्टियों की शोभा बढ़ा रहे हैं। दिनो-दिन इसकी डिमांड बढ़ रही है। प्रतिमाह एक करोड़ का कारोबार हो रहा है। बरेली में फूलों की खेती कोई नई बात नहीं है। सालों से यह कारोबार चल रहा है, लेकिन विदेशी फूलों की खेती कुछ सालों से ही शुरू हुई है। विदेशी फूलों की डिमांड बढऩे के बाद यहां के उत्पादकों ने इसे चुनौती के रूप में लिया। शुरूआत में नुकासान हुआ, लेकिन हिम्मत नहीं हारी और आखिरकार सफलता मिल ही गई। बरेली की वैरायटी को बाजार में हाथों-हाथ लिया गया। मांग बढ़ी तो नर्सरी वालों में कारोबार भी फैलाना शुरू कर दिया। प्रताप नर्सरी के मालिक प्रताप सिंह ने बताया कि मिनी बाईपास से रामपुर रोड के किनारे-किनारे करीब तीस नर्सरी में विदेशी फूल उगाये जा रहे हैं। इसका बीज कोलकाता से लाया जा रहा है। इन फूलों को विशेष तरह से तैयार करके गमलों में रखा जाता है। फिर इसे गमले सहित बड़े शहरों में भेज दिया जाता है। खासतौर पर इन फूलों का इस्तेमाल शादी और पार्टियों की शोभा बढ़ाने में किया जा रहा है। इसका कारोबार अक्टूबर से मार्च तक चलता है। दिल्ली, चंडीगढ़, आगरा, कानपुर जैसे शहरों में प्रति दिन आठ से दस ट्रक फूल की सप्लाई की जा रही है। इससे हर महीने एक करोड़ से अधिक का व्यापार होता है। यह कुटीर उद्योग की तरह है और सौ से अधिक लोगों को रोजगार मिला हुआ है। उन्होंने बताया कि उनके पास डहेलिया की 40 वैराइटी है। कारनेशन सबसे महंगा फूल है।

'विदेशी फूलों को उगाने के लिए विशेष तकनीक की जरूरत होती है, जो लोग इसे उगा रहे हैं वह ट्रेनिंग ले चुके हैं और पाली हाउस में इसे उगाते हैं।Ó - डा. रंजीत सिंह, उद्यान विशेषज्ञ

किन प्रजातियों के फूलों की डिमांड डहेलिया, गुलदाउदी, गेंदा, सालविया, बिटौनिया, गजनेरिया, कारनेशन, डाएंथस, फायरवान, कैलेंडुला, आइसप्लांट, आयरिश, आस्टर, बारबीना, एंपोसिस, कैबिज चाइना प्रजाति के फूल

यूकेलिप्टस पर अस्तित्व का संकट गहराया

यूकेलिप्टस पर अस्तित्व का संकट गहराया
खतरनाक कीड़ा गाल फार्मेशन की चपेट में आया पेड़
उत्तर भारत के करीब 90 फीसदी यूकेलिप्टस पौधों पर इस बीमारी का असर
- बीमारी को खत्म करने के लिए नहीं बन सकी दवा-
यूकेलिप्टस खत्म होने से बंद हो जाएंगे लकड़ी आधारित हजारों उद्योग-
दो दशक में देशभर के यूकेलिप्टस आए बीमारी की चपेट
प्रमोद यादव
बरेली : विदेशी ही सही, बड़े काम के पेड़ यूकेलिप्टस पर अस्तित्व का खतरा मंडरा रहा है। यूकेलिप्टस के हरे भरे पेड़ 'गाल फार्मेशनÓ नामक खतरनाक बीमारी की चपेट में आ गये हैं। इससे उत्तर भारत के करीब 90 फीसदी पेड़ अब प्रभावित हो चुके हैं और यही स्थिति दक्षिण भारत की है। पिछले दो दशकों में इस बीमारी ने कहर बरपा दिया है लेकिन वैज्ञानिक उस बीमारी को खत्म करने की दवा नहीं खोज सके हैं। फिलहाल यूकेलिप्टस को बचाने के लिए कई रिसर्च सेंटरों पर अध्ययन चल रहा लेकिन कोई सफल परिणाम नहीं आया है।दशकों पहले आस्ट्रेलिया से आया यूकेलिप्टस पौधा देश में ऐसा छा गया कि लोग इसे देशी ही समझने लगे। इसकी लकड़ी कई कामों में इस्तेमाल होने लगी। खासकर पेपर बनाने में इसका इस्तेमाल हुआ। पेपर के साथ ही प्लाईवुड और गत्ता बनाने में भी इसका इस्तेमाल होने लगा। उत्तर भारत में पेपर, प्लाईवुट और गत्ता बनाने दो हजार से अधिक उद्योग यूकेलिप्टस के ही दम पर चल रहे हैं। यूकेलिप्टस महंगा बिकने लगा तो किसान को भी बड़े पैमाने पर इसकी खेती करना लगा। एक आकड़े के मुताबिक देश भर में 39।42 लाख हेक्टेयर में इसकी खेती होती है लेकिन अब इन पौधे पर गाल फार्मेशन कीड़े का ग्रहण लग गया है। यूकेलिप्टस पर रिसर्च कर रहे विमको के वैज्ञानिक डा। आरके सिंह ने बताया कि दो दशक पहले यह कीड़ा कर्नाटक में दिखा था। उसके बाद यह फैलता गया और उत्तर भारत के 90 फीसदी यूकेलिप्टस इसकी चपेट में आ गये हैं। यह कीड़ा पत्तियों में लगता है और पेड़ की उन नसों को खाता है, जो भोजन बनाती हैं। इस कीड़े के लगने के बाद पेड़ को भोजन नहीं मिलता और वह सूख जाता है। यह कीड़ा हवा, पानी और भूमि के माध्यम से फैलता है। इसे खत्म करने के लिए कई दवाओं का छिड़काव किया गया लेकिन कीड़े पर असर नहीं पड़ा है। ऐसे में यूकेलिप्टस पर अस्तित्व का खतरा मंडरा रहा है।
कैसे बचाएं यूकेलिप्टस कोचूंकि यूकेलिप्टस अब औद्योगिक पेड़ हो गया है। इसलिए कई पेपर उद्योग इसे बचाने के लिए रिसर्च करवा रहे हैं। इसे तभी बजाया जा सकता है जब इसका नया क्लोन तैयार किया जाय। जिसमें इस बीमारी की प्रतिरोधक क्षमता पहले से ही हो। डा. सिंह ने कहा कि जिन पौधों में यह बीमारी लग चुकी है, किसान उसे बेंच दें। जब भी नया लगाये तो किसी रिसर्च सेंटर से क्लोन वाली प्रजाति लें। बीज से डेवलप की गई प्रजातियों में भी इस बीमारी के होने की आशंका रहती है।

गुरुवार, 2 सितंबर 2010

बरेली में स्वाथ्य का हाल
यहा एक स्वाथ्य केंद्र ऐसा है
जहा dr. नहीं आते है

गनर लेकर अस्पताल आती हैं डाक्टर मैडम
बड़ागांव पीएचसी पर तीन माह में एक बार आती हैं डाक्टर
संयोग से खुलता है अस्पताल का दरवाजा
बरेली
दिन मंगलवार,
समय 12:30 बजे,
स्थान- नवीन प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र बड़ागांव, मझगवां।
इस पांच बेड के अस्पताल में ताला लगा है और चार मरीज गेट पर बैठे हैं। वह इस इंतजार में कि शायद दो बजे तक फार्मासिस्ट आ जाएगी तो दवा मिल जाएगी। यह हाल केवल बड़ागांव के अस्पताल का नहीं बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों के कई अस्पतालों का है। डाक्टर, फार्मासिस्ट और अस्पताल स्टाफ आदि अक्सर गायब रहते हैं।बड़ागांव अस्पताल की बात करें तो कई रोचक तथ्य निकलकर आए। अस्पताल के आसपास रह रहे लोगों से इसके बारे में पूछा तो पता चला कि लोग डाक्टर का नाम भी नहीं जानते हैं। यहां तक गांव के प्रधान देवेंद्र सिंह भी उनका नाम नहीं जानते हैं। प्रधान ने ही बताया कि अस्पताल में महिला डाक्टर की तैनाती है। वह तीन महीने में एक बार 30 अगस्त को आई थी। उनके साथ तीन गनर थे, इसलिए मरीजों की उनसे मिलने की हिम्मत नहीं पड़ी। साल भर हो गए लेकिन किसी ने उनका नाम नहीं पूछा और कहीं उनका नेम प्लेट भी नहीं लगा है। जबसे उनकी पोस्टिंग हुई, शायद ही उन्होंने किसी मरीज का इलाज किया हो। वह अलीगढ़ की रहने वाली हैं। यह हाल डाक्टर साहिबा का है।

कभी-कभी आती हैं फार्मासिस्ट
स्वास्थ्य केंद्र पर तैनात फार्मासिस्ट संगीता सिंगरान तीन दिन गैनी और तीन दिन इस अस्पताल में नौकरी करती हैं। ग्रामीणों ने बताया कि वह सप्ताह में एक-दो दिन आती हैं। कभी-कभी पूरा सप्ताह वह गायब रहती हैं। इनके अलावा एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी है, जो चंदौसी का रहने वाला है। ग्रामीणों ने बताया कि वह बहुत कम आते हैं और अस्पताल में ताला लगा रहता है। इसी परिसर में डाट्स सेंटर खोला गया है। जिसकी स्थिति और खराब है। वह महीने में एक या दो बार आता है।

खुद की बर्बादी पर रोता अस्पताल
करीब 15 साल पहले 12 लाख की लागत से पांच बेड का नवीन प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र बनाया गया। यहां पर डाक्टरों और कर्मचारियों को रहने के लिए आवास, पानी टंकी और बिजली आदि का इंतजाम है। इन इंतजामों के बाद भी वहां कोई नहीं रहता है और अस्पताल खंडहर में तब्दील हो रहा है। पांच बेड में से तीन बेड गायब हो चुके हैं और पंखे, ट्यूबलाइट भी नदारत है। ग्रामीणों ने बताया कि अस्पताल के दो बेड फार्मासिस्ट ले गई और एक बेड डाक्टर। इसी तरह पंखे आदि भी अस्पताल स्टाफ ने गायब कर दिये। बचे हुए खिड़की दरवाजे ग्रामीण गायब कर रहे हैं।

पूर्व विधायक ने कई बार की शिकायत
अस्पताल में डाक्टर और स्टाफ न बैठने की शिकायत आंवला के पूर्व विधायक श्याम बिहारी सिंह ने सीएमओ और कई अधिकारियों से की। इसके बावजूद कोई सुधार नहीं हुआ। मंगलवार को भी वह मौके पर पहुंचे और बताया कि स्वास्थ्य विभाग ग्रामीणों के प्रति बिलकुल उदासीन है। उन्होंने आरोप लगाया कि शासन से आई धनराशि का बंदरबांट हो रहा है और गांव वालों का इलाज नहीं हो रहा है।

रविवार, 29 अगस्त 2010

घर में ही पहचानों खाद्य पदार्थों की मिलावटबरेली।
खाद्य पदार्थों में मिलावट का बाजार गर्म है। अधिकतर खाद्य पदार्थों में मिलावट हो रही है इससे लोगों का स्वास्थ्य खराब हो रहा है। मिलावट रोकने के लिए बना विभाग छापामार कार्रवाई कर रहा है, इसके बावजूद मिलावटखोर सक्रिय हैं। ऐसे में आप खुद ही मिलावट की पहचान कर लें तो कई बीमारियों से अपने और अपने परिवार को बचा सकते हैं। अगर मिलावट की शंका हो तो फूड एंड ड्रग प्राधिकरण विभाग को सूचित कर सकते हैं।कैसे पहचाने खाद्य पदार्थो की मिलावटदूध- अगर दूध में आरारोट मिलाकर गाढ़ा किया गया है तो उसे आसानी से पहचान सकते हैं। दूध में आयोडीन की दो-तीन बूंदे डाल दें तो वह नीला पड़ जाएगा तो समझो मिलावट है। दूध की अन्य जांच लेक्टोमीटर से की जा सकती है, लेक्टोमीटर बाजार में आसानी से मिल जाता है।
आटा- आटे में चावल के बारीक कन पीस दिए जाते हैं। ऐसे आटे को गूथेंगे तो उसमें खिंचाव कम होगा और लचीला नहीं होगा। आटा सख्त रहेगा।
दाल- अरहर की दाल की मांग अधिक है इसमें खेखासी मिला दी जाती है। खेखासी की जांच के लिए दाल को हाइड्रोक्लोरिक एसिड में डाल दे, 15 मिनट बाद उसका रंग पीला हो जाए तो समझो मिलावट है। इसके अलावा दाल रंगी होगी तो पानी मिलाते ही वह रंग छोड़ेगी।
चाय पत्ती- चाय पत्ती में चमड़े के छीलन मिलाया जाता है। ठंडे पानी में इसे डालेंगे तो चाय की पत्ती तैरेगी और चमड़ा नीचे बैठ जाएंगा।खोवा और पनीर- आलू और शकरकंद को उबालकर खोवा में मिला दिया जाता है। थोड़ा खोवा लेकर उसमें आयोडीन डाल दें तो वह पीला पड़ जाएगा तो नकली है। वहीं पनीर अगर मिलावटी होगा तो उसका जमाव अच्छा नहीं होगा। वह भुरभुरा होगा और चिकनाहट गायब होगी।
जीरा- जीरा में फूल झाडू का बीज मिलाया जाता है। जीरा को पानी में डालेंगे तो झाडू का बीज तैरेगा और जीरा नीचे बैठ जाएगा।पिसी मिर्च- पिसी लाल मिर्च में गेरू पीसकर मिला दिया जाता है। इसे एक गिलास पानी में थोड़ा डालेंगे तो मिर्च ऊपर तैरेगी और गेरू नीचे बैठ जाएगा।
हल्दी- बाजार में बिक रही पिसी हल्दी में पीली मिट्टी का इस्तेमाल किया जा रहा है। इसे भी पानी में डालेंगे तो हल्दी तैरेगी और मिट्टी नीचे बैठ जाएगी।
काली मिर्च- इसमें देसी पपीते का बीज मिलाया जा रहा है। इसे पानी में डालेंगे तो काली मिर्च नीचे बैठ जाएगी और पपीते का बीज तैरेगा। इसे चबाने पर पपीते का बीज होगा तीखा नहीं होगा।
नया आलू, इसमें भी धोखा है
- पुराने आलू में बालू और मिट्टी मिलावट उसे नया बताया जा रहा है
- नया बताकर पुराना आलू दोगुना दाम पर बेच रहे हैंबरेली। अरे भाई, नया आलू के मोह में मत पडिय़े, इसमें भी धोखा है। सब्जी बाजारों में नया आलू के नाम पर आप ठगे जा रहे हैं। वास्तव में यह नया नहीं पुराना आलू ही है। पुराने आलू में रंग-रोगन कर उसे नया बताकर दोगुने दामों पर बेचा जा रहा है। यह भी दावा किया जा रहा है कि यह मीठा नहीं है, यह सही है कि मीठा नहीं होगा लेकिन पुराना आलू ही है। पुराने आलू को नया करने का खेल बड़े पैमाने पर चल रहा है।दरअसल पुराने आलू में हल्का मीठापन आ गया है। इसलिए उसकी सब्जी स्वादिष्ट नहीं बनती। ग्राहकों की मांग है कि आलू मीठा न हो। ग्राहकों की मांग को भुनाने के लिए व्यापारियों ने ठगने का नया तरीका निकाल लिया है। नाम न छापने की शर्त पर कृषि विभाग के एक अधिकारी ने बताया कि पुराने आलू को नया करने का खेल कोल्ड स्टोरों में चल रहा है। दरअसल कोल्ड स्टोर में आलू को लंबे समय तक रखने के लिए उसमें सीआईपीसी ट्रीटमेंट किया जाता है। इस ट्रीटमेंट के कारण आलू में हफ्तेभर मीठापन नहीं होता है। इसी दौरान वह इस आलू में लाल महीन बालू और लाल मिट्टी मिला देते हैं। इसमें मिट्टी चिपक जाती है और इसे नया आलू बताकर फुटकर बाजारों में 16-18 रुपए प्रति किलो बेचा जा रहा है जबकि पुराना आलू मात्र आठ रुपए किलो है। बता दें कि इस दौरान नया आलू बंगलौर और चंपावत से आ रहा है। नया आलू बहुत कम आ रहा है और नया के नाम पर सब्जी बाजारों में मिलावटी आलू भरा है।

कहां बनाते हैं पुराना से नया आलूपुराने आलू को नया बनाने का काम कोल्ड स्टोर में हो रहा है। सीआईपीसी तकनीक के तहत आलू में केमिकल छिड़का जाता है। फिर उसे निकालकर महीन लाल बालू के ऊपर फैला दिया जाता है। इसी में ऊपर से लाल मिट्टी डालकर हल्के पानी का छिड़काव करते हैं। इसके बाद मिट्टी और बालू में आलू को पैर से रगड़ देते हैं। आलू का छिलका छूट जाता है और उसे नया बताकर बाजार में बेचा जा रहा है।

क्या है सीआईपीसी तकनीकउद्यान विशेषज्ञों ने बताया कि कोल्ड स्टोर में रखे आलू पर केमिकल का छिड़काव करते हैं। इसे सीआईपीसी तकनीक कहते हैं। छिड़काव करने से आलू को 10-12 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान पर हफ्ते भर आसानी से रखा जा सकता है और वह मीठा भी नहीं होगा। इस तकनीक का इस्तेमाल कोल्ड स्टोर वाले अपने फायदे के लिए करते हैं, क्योंकि इसमें इस्तेमाल न करने से आलू को 4-5 डिग्री तापमान पर रखना पड़ता है।

शुक्रवार, 27 अगस्त 2010

चिकित्सक के गलत इलाज सेमरीज किसी तरह बच पाया।निकला उसके अस्पताल सेघर पहुंचकर ही सांस ले पाया।कभी सिर में दर्द रहतातो कभी पांव से चलते हुए तकलीफ होती‘जान बच गयी लाखों पाये’यही सोचकर तसल्ली कर सब सहताएक दिन उसे वकील से मिलने का ख्याल आया।उसने जाकर उसे सब हाल बताया।वकील ने उसेक्षतिपूर्ति का मुकदमा करने की दी सलाहसाथ में चिकित्सक को भी नोटिस थमाया।अब तो बढ़ गया झगड़ाबदले हालत मेंमरीज खुशी से हो गया तगड़ाइधर चिकित्सक को भी समझौते के लियेलोगों ने समझाया।दोनों अपने वकीलों के साथ मिले एक जगहढूंढने लगे झगड़े की सही वजहमरीज और चिकित्सक के वकील नेदोनों को समझौते की लिए राजी कराया।चिकित्सक ने मरीज की दस हजार फीस में सेपांच हजार उसके वकील औरपांच हजार अपने वाले को थमाया।दोनों ने अपने पैसे अपनी जेब में रख लियेयह देखकर‘मेरे दस हजार कहां हैमुझे वापस दिलवाओ’मरीज चिल्लाया।मरीज का वकील बोला-‘पगला गये होतुमने चिकित्सक का कितना नुक्सान करायातुम्हारे इलाज पर इतनी दवायेें लगाईअपने लोगों से मेहनत कराईफिर भी उनके हाथ कुछ नहीं आया।तुमने मुफ्त मेंउनके फाईव स्टार नुमा अस्पताल मेंचार रातों के साथ दिन बिताया।अब उनकी क्या गलती जोतुमने आराम न पाया।मैंने तुम्हें मुकदमें के लियेभागदौड़ करा कर चंगा कर दियायही काम यह चिकित्सक भी करतेतो यह परेशानी नहीं आतीअपनी इसी गलती काबिल इन्होंने भर दियाक्या यह कम हैतुम तो अब स्वस्थ हो गयेफिर काहे का गम हैतुम्हें ठीक करने की फीसहम दोनों वकीलों ने ले लीतुम तो खर्च कर ही चुकेस्वस्थ होकर हर्जाना नहीं मांग सकतेबिचारे चिकित्ससक साहब का सोचोजिनके हाथ कुछ न आया।’
---- किराये की कविता,,

रास्त्रमंडल

बात कई सप्ताहों से चर्चा में है लेकिन मैं भी कहने से ख़ुद को रोक नहीं सका. राष्ट्रमंडल खेल तो अक्तूबर में शुरू होंगे लेकिन एक बड़ी प्रतियोगिता तो पहले से ही चल रही लगती है. ये प्रतियोगिता उन कुछ नेताओं, अधिकारियों और ठेकेदारों के बीच चली है जिसमें भ्रष्ट, महाभ्रष्ट और परमभ्रष्ट बनने की होड़ लगी हुई है.
लगता है कि इन खेलों से जुड़ा एक बड़ा अमला लूटखसोट में एक दूसरे को पीछे छोड़ने पर तुला हुआ है और इसी के आधार पर उन्हें पदक (सोना,चाँदी) मिलेंगे.
ब्रिटेन के एक अख़बार ने ख़ाका दिया है कि दिल्ली में प्रस्तावित राष्ट्रमंडल खेल भारतीय भ्रष्टों के लिए ही नहीं, बल्कि कुछ विदेशी कंपनियों के लिए भी बेहतरीन अवसर साबित हो रहे हैं. ब्रिटेन की एक कंपनी ने जिस एक टॉयलेट पेपर के लिए 64 पाउंड यानी क़रीब 4600 रुपए लिए वही पेपर दूसरी कंपनी से सिर्फ़ नौ पाउंड यानी क़रीब 650 रुपए में उपलब्ध था. ऐसे 360 टॉयलट पेपर इस कंपनी ने राष्ट्रमंडल खेलों के लिए सप्लाई किए.
एक और बानगी देखिए, इसी कंपनी ने एक कूड़ेदान के लिए 104 पाउंड यानी लगभग साढ़े सात हज़ार रुपए लिए जोकि दूसरी कंपनी सिर्फ़ 16 पाउंड यानी 1150 रुपए में देने को तैयार थी. एक नज़र और डालें, टॉयलेट में हाथ धोने के लिए इस्तेमाल होने वाले तरल साबुन का एक डिस्पैंसर 129 पाउंड यानी क़रीब साढ़े नौ हज़ार रुपए में ख़रीदा गया जबकि यही डिस्पेंसर स्विट्ज़रलैंड की एक कंपनी सिर्फ़ ढाई पाउंड यानी लगभग 170 रुपए में देने को तैयार थी. लिक्विड सोप डिस्पेंसर से ही ब्रिटेन की इस कंपनी ने क़रीब 62 हज़ार पाउंड यानी क़रीब 45 लाख रुपए कमा लिए.
ये तो सिर्फ़ एक कंपनी से ख़रीदे गए सामान की कहानी है. अगर परतें खोली जाएँ तो पता चलेगा कि राष्ट्रमंडल खेलों में न जाने कितनी देसी-विदेशी कंपनियों और लोगों ने अपना बुरा वक़्त संवार लिया है. शायद लूट-खसोट की इसी साँठ-गाँठ की वजह से राष्ट्रमंडल खेलों का बजट पाँच गुना ज़्यादा हो गया है.
विडंबना ये है कि दिल्ली के राष्ट्रमंडल खेलों की आयोजन समिति ने जो इस तरह का सामान विदेशों से ख़रीदा है वो सामान यूरोपीय देशों में बहुत सी बड़ी कंपनियाँ भारत जैसे विकासशील देशों से मंगाती है जो सस्ता पड़ता है और उसे फिर इन देशों में मुनाफ़ा लेकर बेचा जाता है. ये उल्टी गंगा भारतीय आयोजकों ने भला क्यों बहाई है, ये जानने की ज़िम्मेदारी किस पर है, हमें तो नहीं पता.
ये तो हम जानते ही हैं कि ग़रीबी उन्मूलन के लिए मिला बहुत सारा अंतरराष्ट्रीय धन भी इन खेलों की ही भेंट चढ़ गया है. जिस दिल्ली को सँवारने का दम भरा जा रहा है वही दिल्ली बरसात का मौसम आने पर बेबस नज़र आती है. जहाँ-तहाँ पानी जमा हो जाता है और फिर जब डेंगू फैलता है तो अस्पताल और प्रशासनिक ढाँचे की असलियत सामने आ जाती है.
कोई ग़रीब महिला किसी नर्सिंग होम की सीढ़ियों पर ही बच्चे को जन्म देती है क्योंकि उसके पास डॉक्टर की फ़ीस नहीं होती है. अब ये तो आयोजक ही जानें कि इन खेलों के आयोजन के बाद क्या दिल्ली की झुग्गी-झोंपड़ियों की क़िस्मत बदलेगी? दिल्ली के बाहर रहने वाले ग़रीबों को वैसे भी उम्मीद कम ही रहती है.
लेकिन इससे भी ज़्यादा रोना इस बात पर आता है कि भारत में ना तो प्रतिभाशाली लोगों की कमी है और ना ही धन की लेकिन भारत का कोई स्टेडियम एक ऊसेन बोल्ट नहीं तैयार करता. चिंता की बात यही है कि इसे राष्ट्रीय प्रतिष्ठा का मुद्दा बना लिया गया है और अगर ये खेल हो भी गए तो बाद में सब रफ़ा-दफ़ा करने में कितनी देर लगती है.
एक सवाल और, आर्थिक मंदी के दौर में जब लोगों की जीविका ही ख़तरे में पड़ी हुई है तो क्या ये खेल स्थगित नहीं किए जा सकते थे? या देश का दीवाला निकालना और बदनाम कराना ज़रूरी था? बदले समय के अनुसार प्राथमिकताएँ बदलना समझदारी होती है. उस पर भी तुर्रा ये है कि देश के आम लोग ख़ामोशी से निरीह होकर सबकुछ देख रहे हैं, जो लोग चुनाव में सरकार बदल सकते हैं तो देश धन की लूट को रोकने के लिए कोई पत्थर आसमान में क्यों नहीं उछाल सकते?
लेकिन इस बार कुछ उम्मीद करना अनुचित नहीं होगा क्योंकि इतना बेतहाशा धन लगाकर अगर इन खेलों का आयोजन हो रहा है तो भारत के कुछ अति प्रतिभावान खिलाड़ी को सामने आने ही चाहिए, लेकिन अभी तो संकेत यही हैं कि ये खिलाड़ी खेल के मैदान में नहीं बल्कि भ्रष्टाचार और लूट-खसोट के मैदान में तैयार होंगे यानी भ्रष्ट, महाभ्रष्ट और परमभ्रष्ट.