रविवार, 2 जनवरी 2011

झुमका-सुरमा ही नहीं, जनाब अब फूल नगरी कहिए

झुमका-सुरमा ही नहीं, जनाब अब फूल नगरी कहिए
नामचीन हस्तियों की पार्टियों की शोभा बढ़ा रहे बरेली के विदेशी फूल
- बड़े शहरों को रोजाना करीब दस ट्रक फूलों की सप्लाई,
करोड़ का कारोबार अक्टूबर से मार्च छह महीने चलता है धंधा
प्रमोद यादव
बरेली : झुमके-सुरमे की नगरी अब अपनी एक और पहचान बनाने को बेताब है। इस बार फूल उत्पादकों ने अपने हुनर का कमाल दिखाया है। बरेली की धरती पर विदेशी फूलों की खेती ही नहीं की, बल्कि उसकी जबरदस्त मार्केटिंग भी की है। रोजाना करीब दस ट्रक फूल महानगरों को जा रहा है, जहां यह फूल नामचीन हस्तियों की पार्टियों की शोभा बढ़ा रहे हैं। दिनो-दिन इसकी डिमांड बढ़ रही है। प्रतिमाह एक करोड़ का कारोबार हो रहा है। बरेली में फूलों की खेती कोई नई बात नहीं है। सालों से यह कारोबार चल रहा है, लेकिन विदेशी फूलों की खेती कुछ सालों से ही शुरू हुई है। विदेशी फूलों की डिमांड बढऩे के बाद यहां के उत्पादकों ने इसे चुनौती के रूप में लिया। शुरूआत में नुकासान हुआ, लेकिन हिम्मत नहीं हारी और आखिरकार सफलता मिल ही गई। बरेली की वैरायटी को बाजार में हाथों-हाथ लिया गया। मांग बढ़ी तो नर्सरी वालों में कारोबार भी फैलाना शुरू कर दिया। प्रताप नर्सरी के मालिक प्रताप सिंह ने बताया कि मिनी बाईपास से रामपुर रोड के किनारे-किनारे करीब तीस नर्सरी में विदेशी फूल उगाये जा रहे हैं। इसका बीज कोलकाता से लाया जा रहा है। इन फूलों को विशेष तरह से तैयार करके गमलों में रखा जाता है। फिर इसे गमले सहित बड़े शहरों में भेज दिया जाता है। खासतौर पर इन फूलों का इस्तेमाल शादी और पार्टियों की शोभा बढ़ाने में किया जा रहा है। इसका कारोबार अक्टूबर से मार्च तक चलता है। दिल्ली, चंडीगढ़, आगरा, कानपुर जैसे शहरों में प्रति दिन आठ से दस ट्रक फूल की सप्लाई की जा रही है। इससे हर महीने एक करोड़ से अधिक का व्यापार होता है। यह कुटीर उद्योग की तरह है और सौ से अधिक लोगों को रोजगार मिला हुआ है। उन्होंने बताया कि उनके पास डहेलिया की 40 वैराइटी है। कारनेशन सबसे महंगा फूल है।

'विदेशी फूलों को उगाने के लिए विशेष तकनीक की जरूरत होती है, जो लोग इसे उगा रहे हैं वह ट्रेनिंग ले चुके हैं और पाली हाउस में इसे उगाते हैं।Ó - डा. रंजीत सिंह, उद्यान विशेषज्ञ

किन प्रजातियों के फूलों की डिमांड डहेलिया, गुलदाउदी, गेंदा, सालविया, बिटौनिया, गजनेरिया, कारनेशन, डाएंथस, फायरवान, कैलेंडुला, आइसप्लांट, आयरिश, आस्टर, बारबीना, एंपोसिस, कैबिज चाइना प्रजाति के फूल

यूकेलिप्टस पर अस्तित्व का संकट गहराया

यूकेलिप्टस पर अस्तित्व का संकट गहराया
खतरनाक कीड़ा गाल फार्मेशन की चपेट में आया पेड़
उत्तर भारत के करीब 90 फीसदी यूकेलिप्टस पौधों पर इस बीमारी का असर
- बीमारी को खत्म करने के लिए नहीं बन सकी दवा-
यूकेलिप्टस खत्म होने से बंद हो जाएंगे लकड़ी आधारित हजारों उद्योग-
दो दशक में देशभर के यूकेलिप्टस आए बीमारी की चपेट
प्रमोद यादव
बरेली : विदेशी ही सही, बड़े काम के पेड़ यूकेलिप्टस पर अस्तित्व का खतरा मंडरा रहा है। यूकेलिप्टस के हरे भरे पेड़ 'गाल फार्मेशनÓ नामक खतरनाक बीमारी की चपेट में आ गये हैं। इससे उत्तर भारत के करीब 90 फीसदी पेड़ अब प्रभावित हो चुके हैं और यही स्थिति दक्षिण भारत की है। पिछले दो दशकों में इस बीमारी ने कहर बरपा दिया है लेकिन वैज्ञानिक उस बीमारी को खत्म करने की दवा नहीं खोज सके हैं। फिलहाल यूकेलिप्टस को बचाने के लिए कई रिसर्च सेंटरों पर अध्ययन चल रहा लेकिन कोई सफल परिणाम नहीं आया है।दशकों पहले आस्ट्रेलिया से आया यूकेलिप्टस पौधा देश में ऐसा छा गया कि लोग इसे देशी ही समझने लगे। इसकी लकड़ी कई कामों में इस्तेमाल होने लगी। खासकर पेपर बनाने में इसका इस्तेमाल हुआ। पेपर के साथ ही प्लाईवुड और गत्ता बनाने में भी इसका इस्तेमाल होने लगा। उत्तर भारत में पेपर, प्लाईवुट और गत्ता बनाने दो हजार से अधिक उद्योग यूकेलिप्टस के ही दम पर चल रहे हैं। यूकेलिप्टस महंगा बिकने लगा तो किसान को भी बड़े पैमाने पर इसकी खेती करना लगा। एक आकड़े के मुताबिक देश भर में 39।42 लाख हेक्टेयर में इसकी खेती होती है लेकिन अब इन पौधे पर गाल फार्मेशन कीड़े का ग्रहण लग गया है। यूकेलिप्टस पर रिसर्च कर रहे विमको के वैज्ञानिक डा। आरके सिंह ने बताया कि दो दशक पहले यह कीड़ा कर्नाटक में दिखा था। उसके बाद यह फैलता गया और उत्तर भारत के 90 फीसदी यूकेलिप्टस इसकी चपेट में आ गये हैं। यह कीड़ा पत्तियों में लगता है और पेड़ की उन नसों को खाता है, जो भोजन बनाती हैं। इस कीड़े के लगने के बाद पेड़ को भोजन नहीं मिलता और वह सूख जाता है। यह कीड़ा हवा, पानी और भूमि के माध्यम से फैलता है। इसे खत्म करने के लिए कई दवाओं का छिड़काव किया गया लेकिन कीड़े पर असर नहीं पड़ा है। ऐसे में यूकेलिप्टस पर अस्तित्व का खतरा मंडरा रहा है।
कैसे बचाएं यूकेलिप्टस कोचूंकि यूकेलिप्टस अब औद्योगिक पेड़ हो गया है। इसलिए कई पेपर उद्योग इसे बचाने के लिए रिसर्च करवा रहे हैं। इसे तभी बजाया जा सकता है जब इसका नया क्लोन तैयार किया जाय। जिसमें इस बीमारी की प्रतिरोधक क्षमता पहले से ही हो। डा. सिंह ने कहा कि जिन पौधों में यह बीमारी लग चुकी है, किसान उसे बेंच दें। जब भी नया लगाये तो किसी रिसर्च सेंटर से क्लोन वाली प्रजाति लें। बीज से डेवलप की गई प्रजातियों में भी इस बीमारी के होने की आशंका रहती है।