रविवार, 2 जनवरी 2011

यूकेलिप्टस पर अस्तित्व का संकट गहराया

यूकेलिप्टस पर अस्तित्व का संकट गहराया
खतरनाक कीड़ा गाल फार्मेशन की चपेट में आया पेड़
उत्तर भारत के करीब 90 फीसदी यूकेलिप्टस पौधों पर इस बीमारी का असर
- बीमारी को खत्म करने के लिए नहीं बन सकी दवा-
यूकेलिप्टस खत्म होने से बंद हो जाएंगे लकड़ी आधारित हजारों उद्योग-
दो दशक में देशभर के यूकेलिप्टस आए बीमारी की चपेट
प्रमोद यादव
बरेली : विदेशी ही सही, बड़े काम के पेड़ यूकेलिप्टस पर अस्तित्व का खतरा मंडरा रहा है। यूकेलिप्टस के हरे भरे पेड़ 'गाल फार्मेशनÓ नामक खतरनाक बीमारी की चपेट में आ गये हैं। इससे उत्तर भारत के करीब 90 फीसदी पेड़ अब प्रभावित हो चुके हैं और यही स्थिति दक्षिण भारत की है। पिछले दो दशकों में इस बीमारी ने कहर बरपा दिया है लेकिन वैज्ञानिक उस बीमारी को खत्म करने की दवा नहीं खोज सके हैं। फिलहाल यूकेलिप्टस को बचाने के लिए कई रिसर्च सेंटरों पर अध्ययन चल रहा लेकिन कोई सफल परिणाम नहीं आया है।दशकों पहले आस्ट्रेलिया से आया यूकेलिप्टस पौधा देश में ऐसा छा गया कि लोग इसे देशी ही समझने लगे। इसकी लकड़ी कई कामों में इस्तेमाल होने लगी। खासकर पेपर बनाने में इसका इस्तेमाल हुआ। पेपर के साथ ही प्लाईवुड और गत्ता बनाने में भी इसका इस्तेमाल होने लगा। उत्तर भारत में पेपर, प्लाईवुट और गत्ता बनाने दो हजार से अधिक उद्योग यूकेलिप्टस के ही दम पर चल रहे हैं। यूकेलिप्टस महंगा बिकने लगा तो किसान को भी बड़े पैमाने पर इसकी खेती करना लगा। एक आकड़े के मुताबिक देश भर में 39।42 लाख हेक्टेयर में इसकी खेती होती है लेकिन अब इन पौधे पर गाल फार्मेशन कीड़े का ग्रहण लग गया है। यूकेलिप्टस पर रिसर्च कर रहे विमको के वैज्ञानिक डा। आरके सिंह ने बताया कि दो दशक पहले यह कीड़ा कर्नाटक में दिखा था। उसके बाद यह फैलता गया और उत्तर भारत के 90 फीसदी यूकेलिप्टस इसकी चपेट में आ गये हैं। यह कीड़ा पत्तियों में लगता है और पेड़ की उन नसों को खाता है, जो भोजन बनाती हैं। इस कीड़े के लगने के बाद पेड़ को भोजन नहीं मिलता और वह सूख जाता है। यह कीड़ा हवा, पानी और भूमि के माध्यम से फैलता है। इसे खत्म करने के लिए कई दवाओं का छिड़काव किया गया लेकिन कीड़े पर असर नहीं पड़ा है। ऐसे में यूकेलिप्टस पर अस्तित्व का खतरा मंडरा रहा है।
कैसे बचाएं यूकेलिप्टस कोचूंकि यूकेलिप्टस अब औद्योगिक पेड़ हो गया है। इसलिए कई पेपर उद्योग इसे बचाने के लिए रिसर्च करवा रहे हैं। इसे तभी बजाया जा सकता है जब इसका नया क्लोन तैयार किया जाय। जिसमें इस बीमारी की प्रतिरोधक क्षमता पहले से ही हो। डा. सिंह ने कहा कि जिन पौधों में यह बीमारी लग चुकी है, किसान उसे बेंच दें। जब भी नया लगाये तो किसी रिसर्च सेंटर से क्लोन वाली प्रजाति लें। बीज से डेवलप की गई प्रजातियों में भी इस बीमारी के होने की आशंका रहती है।

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