शुक्रवार, 27 अगस्त 2010

रास्त्रमंडल

बात कई सप्ताहों से चर्चा में है लेकिन मैं भी कहने से ख़ुद को रोक नहीं सका. राष्ट्रमंडल खेल तो अक्तूबर में शुरू होंगे लेकिन एक बड़ी प्रतियोगिता तो पहले से ही चल रही लगती है. ये प्रतियोगिता उन कुछ नेताओं, अधिकारियों और ठेकेदारों के बीच चली है जिसमें भ्रष्ट, महाभ्रष्ट और परमभ्रष्ट बनने की होड़ लगी हुई है.
लगता है कि इन खेलों से जुड़ा एक बड़ा अमला लूटखसोट में एक दूसरे को पीछे छोड़ने पर तुला हुआ है और इसी के आधार पर उन्हें पदक (सोना,चाँदी) मिलेंगे.
ब्रिटेन के एक अख़बार ने ख़ाका दिया है कि दिल्ली में प्रस्तावित राष्ट्रमंडल खेल भारतीय भ्रष्टों के लिए ही नहीं, बल्कि कुछ विदेशी कंपनियों के लिए भी बेहतरीन अवसर साबित हो रहे हैं. ब्रिटेन की एक कंपनी ने जिस एक टॉयलेट पेपर के लिए 64 पाउंड यानी क़रीब 4600 रुपए लिए वही पेपर दूसरी कंपनी से सिर्फ़ नौ पाउंड यानी क़रीब 650 रुपए में उपलब्ध था. ऐसे 360 टॉयलट पेपर इस कंपनी ने राष्ट्रमंडल खेलों के लिए सप्लाई किए.
एक और बानगी देखिए, इसी कंपनी ने एक कूड़ेदान के लिए 104 पाउंड यानी लगभग साढ़े सात हज़ार रुपए लिए जोकि दूसरी कंपनी सिर्फ़ 16 पाउंड यानी 1150 रुपए में देने को तैयार थी. एक नज़र और डालें, टॉयलेट में हाथ धोने के लिए इस्तेमाल होने वाले तरल साबुन का एक डिस्पैंसर 129 पाउंड यानी क़रीब साढ़े नौ हज़ार रुपए में ख़रीदा गया जबकि यही डिस्पेंसर स्विट्ज़रलैंड की एक कंपनी सिर्फ़ ढाई पाउंड यानी लगभग 170 रुपए में देने को तैयार थी. लिक्विड सोप डिस्पेंसर से ही ब्रिटेन की इस कंपनी ने क़रीब 62 हज़ार पाउंड यानी क़रीब 45 लाख रुपए कमा लिए.
ये तो सिर्फ़ एक कंपनी से ख़रीदे गए सामान की कहानी है. अगर परतें खोली जाएँ तो पता चलेगा कि राष्ट्रमंडल खेलों में न जाने कितनी देसी-विदेशी कंपनियों और लोगों ने अपना बुरा वक़्त संवार लिया है. शायद लूट-खसोट की इसी साँठ-गाँठ की वजह से राष्ट्रमंडल खेलों का बजट पाँच गुना ज़्यादा हो गया है.
विडंबना ये है कि दिल्ली के राष्ट्रमंडल खेलों की आयोजन समिति ने जो इस तरह का सामान विदेशों से ख़रीदा है वो सामान यूरोपीय देशों में बहुत सी बड़ी कंपनियाँ भारत जैसे विकासशील देशों से मंगाती है जो सस्ता पड़ता है और उसे फिर इन देशों में मुनाफ़ा लेकर बेचा जाता है. ये उल्टी गंगा भारतीय आयोजकों ने भला क्यों बहाई है, ये जानने की ज़िम्मेदारी किस पर है, हमें तो नहीं पता.
ये तो हम जानते ही हैं कि ग़रीबी उन्मूलन के लिए मिला बहुत सारा अंतरराष्ट्रीय धन भी इन खेलों की ही भेंट चढ़ गया है. जिस दिल्ली को सँवारने का दम भरा जा रहा है वही दिल्ली बरसात का मौसम आने पर बेबस नज़र आती है. जहाँ-तहाँ पानी जमा हो जाता है और फिर जब डेंगू फैलता है तो अस्पताल और प्रशासनिक ढाँचे की असलियत सामने आ जाती है.
कोई ग़रीब महिला किसी नर्सिंग होम की सीढ़ियों पर ही बच्चे को जन्म देती है क्योंकि उसके पास डॉक्टर की फ़ीस नहीं होती है. अब ये तो आयोजक ही जानें कि इन खेलों के आयोजन के बाद क्या दिल्ली की झुग्गी-झोंपड़ियों की क़िस्मत बदलेगी? दिल्ली के बाहर रहने वाले ग़रीबों को वैसे भी उम्मीद कम ही रहती है.
लेकिन इससे भी ज़्यादा रोना इस बात पर आता है कि भारत में ना तो प्रतिभाशाली लोगों की कमी है और ना ही धन की लेकिन भारत का कोई स्टेडियम एक ऊसेन बोल्ट नहीं तैयार करता. चिंता की बात यही है कि इसे राष्ट्रीय प्रतिष्ठा का मुद्दा बना लिया गया है और अगर ये खेल हो भी गए तो बाद में सब रफ़ा-दफ़ा करने में कितनी देर लगती है.
एक सवाल और, आर्थिक मंदी के दौर में जब लोगों की जीविका ही ख़तरे में पड़ी हुई है तो क्या ये खेल स्थगित नहीं किए जा सकते थे? या देश का दीवाला निकालना और बदनाम कराना ज़रूरी था? बदले समय के अनुसार प्राथमिकताएँ बदलना समझदारी होती है. उस पर भी तुर्रा ये है कि देश के आम लोग ख़ामोशी से निरीह होकर सबकुछ देख रहे हैं, जो लोग चुनाव में सरकार बदल सकते हैं तो देश धन की लूट को रोकने के लिए कोई पत्थर आसमान में क्यों नहीं उछाल सकते?
लेकिन इस बार कुछ उम्मीद करना अनुचित नहीं होगा क्योंकि इतना बेतहाशा धन लगाकर अगर इन खेलों का आयोजन हो रहा है तो भारत के कुछ अति प्रतिभावान खिलाड़ी को सामने आने ही चाहिए, लेकिन अभी तो संकेत यही हैं कि ये खिलाड़ी खेल के मैदान में नहीं बल्कि भ्रष्टाचार और लूट-खसोट के मैदान में तैयार होंगे यानी भ्रष्ट, महाभ्रष्ट और परमभ्रष्ट.

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